प्राकृतिक आपदा का जिम्मेवार हम स्वंय

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दावथ /रोहतास (चारोधाम मिश्रा):-पर्यावरण, हमारे चारों ओर का व्याप्त वातावरण मुख्यतः स्थलमण्डल, जलमण्डल एवं वायुमण्डल का योग है, जिसमें जीवन पाया जाता है। पृथ्वी पर जीवन इन तीनों मण्डलों के अन्तः सम्बन्ध एवं प्राकृतिक सन्तुलन से ही हुआ है। पर्यावरण का भौतिक भाग जो मानव नियन्त्रण से परे है, प्रकृति कहलाती है।प्रकृति ने मानव की समस्त मूलभूत आवश्यकताएं सुख एवं सम्पदा के सारे संसाधन अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझते हुए प्रदान किए हैं। प्रकृति ने वह मृदा जिसमें हम अन्न पैदा करते हैं, पानी जिसे हम पीते हैं, एवं हवा जिसमें हम सांस लेते हैं तथा जिनके अभाव में पृथ्वी पर जीवन सम्भव नहीं है, बिना किसी सीमा एवं शुल्क के उपलब्ध कराया है। तमाम वैज्ञानिक विकास के बावजूद भी हम इन मूलभूत आवश्यकताओं के निर्माण में अक्षम है।वैसे तो मानव भी पर्यावरण का ही एक अंग है, और इसका अस्तित्व प्रकृति के ऊपर ही निर्भर है। इसीलिए मानव का उद्विकास, उसकी संस्कृति एवं सभ्यता प्राकृतिक नियमों एवं वैज्ञानिक तथ्यों को ध्यान में रखकर पल्लवित एवं पुष्पित हुई जैसे सिन्धु घाटी की सभ्यता (सिन्धु नदी), मेसोपोटामिया (दजला एवं फरात के बीच में), मिश्र (नील नदी)।आदिवासी सभ्यता से बाहर निकलकर मानव ने जब विकास की प्रक्रिया को प्रारम्भ किया होगा तो उसे यह अहसास भी नहीं रहा होगा कि इस अनियन्त्रित, असंतुलित एवं अनियोजित विकास से वह अपने ही विनाश का मार्ग बना रहा है किन्तु आज विश्व के तमाम देश चाहे तो विकासशील हों या विकसित, विगत वर्षों में आए हुए आपदाओं के बाद भली-भांति जान गये हैं कि प्रकृति कितनी बड़ी है और मानव कितना बौना। विकास के साथ-साथ मानव ने प्राकृतिक सीमा पार कर दी है और अब वह प्रकृति की कीमत पर विकास कर रहा है। अब वह सारे सुख सम्पदा प्राप्त करना चाहता है जिसको किसी ने भी पर्यावरण को प्रदूषित करते हुए, प्राकृतिक नियमों की अनदेखी करते हुए एवं प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन से प्राप्त किया है। जिसके परिणामस्वरूप वरदान स्वरूप जीवन दायिनी प्रकृति अभिशाप बनती हुई दिखाई दे रही है। प्रकृति के सारे घटक एवं तत्व साम्यावस्था में हैं। मानवीय गतिविधियों ने विगत वर्षों में प्रकृति को असंतुलित किया है जो आपदाओं का कारण बन रहा है।उत्तराखण्ड में अभी इस तरह की घटना इस बात का संदेश देती है कि प्राकृतिक घटनाएं मानव नियन्त्रण एवं पुर्वानुमान से परे हैं लेकिन इतना अवश्य है कि बेहतर नियोजन एवं प्रबन्धन के द्वारा इन आपदाओं से होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है। पिछले कुछ दशकों में विकास प्राकृतिक नियमों एवं वैज्ञानिक तथ्यों की अनदेखी करके किया गया। एवं आपदाग्रस्त्र क्षेत्रों में भी बस्तियां बनायी गई। आज हम प्रकृति के साथ नहीं बल्कि उसकी कीमत पर विकास कर रहे हैं। यह समस्या सिर्फ किसी व्यक्ति, गाँव, नगर, शहर या राज्य की समस्या नहीं है, अपितु यह पूरे जनमानस की समस्या है। सभी इसके निराकरण के लिये प्रयासरत हैं फिर भी यह समस्या दिनों दिन विशालकाय होती जा रही है। आज मानव का अस्तित्व अपने ही क्रियाकलापों के कारण खतरे में दिखायी दे रहा है। अतः इसके समाधान के लिए जन-जन की सहभागिता की आवश्यकता है। तभी हमारी पृथ्वी हरी भरी एवं साफ सुथरी दिखाई देगी एवं हम पूरे विश्व को यह संदेश दे पायेंगे कि हम उस देश के रहने वाले है जहाँ पर प्रकृति को संरक्षित करने के लिये पूरा जनमानस जागरूक है।यह सदैव याद रखना चाहिए कि जो प्रकृति हमें मुफ्त में जीवनदायिनी तत्व प्रदान कर रही है हमें उसकी रक्षा करनी है एवं प्राकृतिक नियमों एवं वैज्ञानिक तथ्यों को ध्यान में रखते हुए ऐसा विकास करना है जिसमें पर्यावरण भी प्रदूषित न हो। प्रकृति भी संरक्षित रहे एवं प्राकृतिक संसाधन भी आने वाले पीढ़ी के लिये बचे रहें।

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