संवाद का चौथा दिन समुदाय के अद्भुत कला-रूपों और कहानियों का गवाह बना

Spread the love

जमशेदपुर:- आदिवासी सम्मेलन संवाद के चौथे दिन पूरे भारत के आदिवासी समुदाय के कलाकारों ने कैनवास पर आदिवासियों की परंपराओं और आदिवासीयत के विभिन्न रंगों को जीवंत किया।

इस साल संवाद पहली बार ‘आर्टीसंस रेजीडेंसी’ की मेजबानी कर रहा है, जो पूरे भारत से 25 आदिवासी कलात्मक प्रतिभाओं को अपनी कल्पणायें उकेरने के लिए एकजुट किया। इस कार्यक्रम के तहत सात कैनवसों पर रंग बिखरने की योजना है, जिसमें 12 आदिवासी कला-रूपों का समामेल होगा। यह आयोजन न केवल इन अद्वितीय चित्रकला के सृजन का प्रतीक है, बल्कि कलाकारों के साथ बातचीत करने और इन कलाकारों व उनकी कलाकृतियों को मंच प्रदान करने के अवसरों का पता लगाने के लिए सहयोग करने का अवसर भी प्रदान करता है।

कलाकारों ने अपने व्यक्तिगत समूह कार्यों के माध्यम से मुख्य रूप से अपने जीवन में प्रकृति की भूमिका को चित्रित किया और बताया कि कैसे एक सतत भविष्य के लिए इसका संरक्षण महत्वपूर्ण है। ये कलाकार महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, ओडिशा, तेलंगाना, झारखंड, लद्दाख, गुजरात आदि राज्यों की विभिन्न जनजातियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। 22 नवंबर तक चलने वाले इस शिविर में उरांव, जुआंग, गोंड, वारली सहित अन्य समुदाय के लोग हिस्सा ले रहे हैं।

मध्य प्रदेश की भील जनजाति का प्रतिनिधित्व करने वाली एक कलाकार लाडो बाई ने बताया कि उनका समुदाय भगवान पिथौरा का अनुष्ठानिक भित्ति चित्र बनाता है। उन्होंने कहा कि वह मैं बचपन से इस कला का अभ्यास कर रही है और उनके अग्रजों द्वारा बताई गई कहानियों से प्रेरित हुई और इससे उनके मन में यह विश्वास जग गयी कि भगवान इस कला से प्रसन्न होंगे। उनकी प्रत्येक पेंटिंग कोई-न-कोई कहानी कहती हुई प्रतीत होती है।”

लाडो के लिए यह यात्रा आसान नहीं थी। उन्होंने 12 साल की उम्र में एक मजदूर के रूप में काम करना शुरू कर दिया था। उनका जीवन तब बदल गया, जब प्रसिद्ध भारतीय कलाकार जगदीश स्वामीनाथन ने उनकी प्रतिभा को समझा और लाडो को आदिवासी लोक कला अकादमी के लिए काम करने को प्रोत्साहित किया, जहां उन्हें दीवारों और कागजों पर त्योहारों, अनुष्ठानों और जानवरों की छवि गढ़ने का अवसर मिला। उनकी कृतियों को भारत, फ्रांस और यूके में विभिन्न प्रदर्शनियों में प्रदर्शित किया गया है और उन्हें कई पुरस्कार भी मिले हैं।

लाडो ने बताया, “मैं बहुत उत्साहित हूं कि संवाद ने मुझे अन्य आदिवासी समुदायों के साथ सहयोग करने का अवसर दिया, जहां हम सभी एक कैनवास पर अपने पारंपरिक कला-रूपों का प्रतिनिधित्व करते हुए एक नई कलाकृति बनाएंगे, जो विभिन्न कलाओं का एक मिश्रण होगा। यह अपने आप में एक अलग प्रकार की कला होगी।“

प्रसिद्ध कलाकार युगल सुभाष व्याम और दुर्गा बाई व्याम ने कलाकारों के साथ बातचीत की और आदिवासी कला के विभिन्न आयामों पर चर्चा की।

दूसरी ओर, संवाद के मुख्य आयोजन स्थल ट्राइलब कल्चर सेंटर में सार्थक बातचीत जारी है। ’वन गुज्जर’ नामक स्थानीय समुदाय का प्रतिनिधित्व करते उत्तराखंड से ‘संवाद-2020’ के एक फेलो तौकीर आलम  ने अपनी कहानी साझा की।

आलम ने अपनी यात्रा के बारे में बात करते हुए बताया “बहुत समय पहले हमारे पूर्वज अपने मवेशियों के साथ जंगलों में घूमते थे। 2003 में हमें राजाजी राष्ट्रीय उद्यान से हटा दिया गया और गेंदीखाता गुज्जर बस्ती और पथरी गुज्जर बस्ती में स्थानांतरित कर दिया गया। अब मैं उत्तराखंड में एक नेचर गाइड हूं और नेचर साइंस इनिशिएटिव (एनएसआई) के साथ मिल कर ग्रामीण और शहरी स्कूलों में वन्यजीवों और जागरूकता अभियानों पर शोध करता हूं। मुझे 2019 में सैंक्चुअरी एशिया यंग नेचुरलिस्ट अवार्ड मिला है।”

फिलवक्त तौकीर और उसके दोस्त मिल कर वन गुज्जर समाज के उन बच्चों को शिक्षित करने का काम करते हैं जो अभी भी जंगलों में रह रहे हैं। उन्होंने ’माई’ (एमएईई) नामक एक समूह भी बनाया है, जो वन गुज्जर जनजाति की भाषा के संरक्षण के लिए काम कर रहा है। इस जनजाति के लिए उन्होंने स्थानीय भाषा में शब्दकोश, लोक कथाएँ, लोक गीत, पहेली और कहावतें विकसित की हैं, जो जल्द ही प्रकाशित होंगी। उन्होंने जागरूकता फैलाने के लिए एक यू-ट्यूब चैनल भी बनाया है।

इस समूह के सदस्य 6वीं-12वीं कक्षा के विद्यार्थी हैं। उन्हें पक्षियों को पहचानना सिखाया गया है। वे नियमित रूप से विभिन्न स्कूलों के लिए ‘नेचर वॉक’ का आयोजन करते करते हैं। इसके अलावा, तौकीर राष्ट्रीय और विदेशी पक्षी देखने वालों और फोटोग्राफरों के साथ पक्षी भ्रमण पर जाते हैं।

तौकीर ने बताया कि वह राजाजी के जानवरों जैसे – हाथी, बाघ, तेंदुए और भालू को उनकी गंध व आवाज़ से पहचान सकता है। अब वह विश्वास के साथ 300 से अधिक पक्षियों को उनकी चहकती आवाज से पहचान सकता है।“

तौकीर को 9 साल की उम्र में एक स्कूल में भर्ती कराया गया था, लेकिन उन्होंने बीच में ही स्कूल छोड़ दिया। नेचर साइंस इनिशिएटिव के शोधकर्ताओं के काफी समझाने के बाद, उन्होंने 2015 में उत्तराखंड स्टेट ओपन स्कूल में दाखिला लिया। अब उन्होंने 12वीं कक्षा पूरी कर ली है और इग्नू से स्नातक की पढ़ाई कर रहे हैं। लेकिन उनका मानना है कि प्राकृतिक वैज्ञानिक बनने के लिए शैक्षणिक योग्यता ही एकमात्र मानदंड नहीं है।

हर शाम, देश भर के आदिवासी समुदायों की विविध प्रस्तुतियों को यूट्यूब चैनल (https://www.youtube.com/channel/UCtyIjTKJAYEaMH3BkcHRVzw) पर दिखाए जा रहे हैं। इस सूची में सोफियम और पर्पल फ्यूजन जैसे लोकप्रिय जनजातीय बैंड के नाम शामिल हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *